Ghar Jamai ki kahani in Hindi | घर जमाई की कहानी
दृश्य सूची
मुंशी प्रेमचंद की कहानी “घर जमाई” में बताया गया है कि कैसे एक जमाई पहले घर का देवता बनता है फिर घर का आदमी और आखिर में दास बनकर रह जाता है। यह कहानी उन सामाजिक धारणाओं पर प्रहार करती है, जहां आर्थिक स्थिति कमजोर होने पर व्यक्ति की गरिमा और सम्मान समाप्त हो जाता है। प्रेमचंद की लेखनी की यही खूबी है कि वे वास्तविक जीवन को पात्रों के जरिए इतनी खूबसूरती से पेश करते है कि आप उनके सुख-दुख, हर भाव को महसूस करने लगते हैं। प्रेमचंद ने बेहद संवेदनशीलता के साथ इस कथा के जरिए पारिवारिक संबंधों, आर्थिक निर्भरता, और स्वाभिमान की लड़ाई को उजागर किया है। तो आइए कहानी को शुरू करते हैं……
पहला चरण
हरिधन 16 साल का था, जब उसकी शादी हो गई थी। शादी के कुछ समय बाद ही हरिधन की मां का निधन हो गया था। मां के गुजर जाने के बाद, हरिधन की तो जैसे दुनिया ही उजड़ गई थी। हरिधन को लगता था, कि पिता सिर्फ़ एक विलास की चीज है, जैसे बाबुओं के लिए मोहनभोग। पिता तो बच्चों को कभी-कभार ही दुलारते या उछालते, जबकि मां के बिना तो पूरी दुनिया ही बेकार है। मां के बिना हरिधन का जीवन सूना था। वह अकेला महसूस करने लगा, हालांकि उसकी बुआ और पिता उसे ज्यादा प्यार देने लगे थे, लेकिन वह प्यार उसे संतुष्ट नहीं कर पाता था।
एक साल बाद, उसके घर में उसकी सौतेली मां आ गई। उसने, मां से कोई बात तक न की। हरिधन ने उससे कोई लगाव महसूस नहीं किया। और अपनी ससुराल चला आया। उसकी सास ने, उसके शून्य जीवन को प्रेम और स्नेह से भर दिया। सालियों की चुहल में, सास के स्नेह में, सालों के वाक्-विलास में और स्त्री के प्रेम में, उसके जीवन की सारी आकांक्षाएं पूरी हो गयीं। सास कहती-बेटा, तुम इस घर को अपना ही समझो, तुम्हीं मेरी आंखों के तारे हो। वह उससे अपने लड़कों की, बहुओं की शिकायत करती। हरिधन मन ही मन सोचता, कि मेरी सास कितनी अच्छी है, जो मुझे अपने बेटों से भी ज़्यादा चाहती हैं।
कुछ समय बाद हरिधन के पिता का भी देहांत हो गया। बाप के मरते ही वह घर गया, और अपने हिस्से की जायदाद को कूडे के भाव बेचकर, रूपयों की थैली लिए फिर ससुराल आ गया। अब उसका दोगुना, आदर-सत्कार होने लगा। उसने अपनी सारी सम्पत्ति सास के हाथों में थमा दी। अब तक उसे कभी-कभी घर की याद आ जाती थी। अब भूलकर भी उसकी याद न आती, मानो वह उसके जीवन का कोई भीषण कांड था, जिसे भूल जाना ही उसके लिए अच्छा था। वह घर में सबसे पहले उठता, सबसे ज़्यादा काम करता। उसका परिश्रम देखकर गांव के लोग दांतों तले उंगली दबाते थे, कि उसके ससुर के तो भाग्य खुल गए, जिसे इतना मेहनती दामाद मिल गया। लेकिन ज्यों-ज्यों दिन गुज़रते गए, उसका मान-सम्मान घटता गया। पहले वह देवता था, फिर घर का आदमी और अन्त में घर का दास हो गया। सबका व्यवहार उसके प्रति बदल गया था। वह अपमान झेलने लगा। यहां तक कि उसकी पत्नी ने भी उसे अनदेखा कर दिया, जिससे उसका जीवन और भी मुश्किल हो गया।
दूसरा चरण
हरिधन जेठ की भरी दोपहर में गन्ने के खेत में पानी देकर आया और बाहर बैठ गया। अंदर से धुआं उठता नजर आया, छन-छन की आवाज़ भी। उसके दोनों साले साहब, और लड़के आये, घर के अंदर चले गए, लेकिन हरिधन अंदर नहीं गया! जाता भी कैसे? पिछले कुछ महीनों से उसके साथ ,जो बर्ताव हो रहा था, खासकर कल जो उसे खरी खोटी सुननी पड़ी, वह सब उसके पांव को जकड़े हुए थी। कल उसकी सास ने ही, तो कहा था, मेरा तो मन भर गया है तुमसे, मैंने क्या तुम्हारी जिंदगी का ठेका लिया है???
सबसे ज्यादा तो उसकी पत्नी की निष्ठुरता ने उसके दिल के टुकड़े-टुकड़े कर दिये थे, को बैठी हुई सब गट-गट सुन रही थी। उसके मुंह से एक बार भी नहीं निकला, कि अम्मा तुम इनका, इतना अपमान क्यों कर रही हो? हम शायद वो मेरी इस दुर्दशा पर खुश थी? उसके अंदर एक जंग छिड़ी हुई थी। मैं किसी से कम काम नहीं करता! दोनों साले मजे से सोते हैं और मैं, बैलों की सानी-पानी करता हूं, सब लोग चिलम पीते हैं, मैं फिर भी आंख बंद किए काम में लगा रहता हूं। शाम के समय घरवाले गाने बजाने निकल जाते, और मैं देर रात तक गाय-भैंस की देखरेख करता। इसका यह इनाम मिल रहा है मुझे??? कि कोई खाने तक को नहीं पूछता, उल्टा गलियां मिलती है पुरस्कार में।
हरिधन की पत्नी, गुमानी हाथ में डोल लिए आई और बोली, “जरा कुएं से पानी खींच दो, घर में एक बूंद पानी नहीं है।” हरिघन ने पानी भर दिया। उसे बहुत तेज भूख लगी थी। उसने सोचा था की गुमानी खाने के लिए पूछेंगी, लेकिन वो तो डोल लेकर सीधा घर के अंदर चली गई। थका-हारा हरिधन, भूख से परेशान पड़ा सो रहा था, उसकी पत्नी गुमानी ने आकर उसे जगाया। उसने लेटे हुए ही पूछा, “अब क्या है? सोने भी नहीं दोगी क्या? या फिर और पानी भरकर दू।” गुमानी गुस्से में बोली, गुर्राते क्यों हो? खाने के लिए बुलाने आई हूं।
हरिधन ने देखा, उसके दोनों साले और बड़े वाले के लड़के खाना खाकर ही बाहर निकले है। यह देखकर उसके अंदर एक ज्वाला उठी, कि अब ये नौबत आ गई! कि साथ बैठकर भी नहीं खा सकते? मैं इनकी झूठी थाली चाटने वाला हूं? मैं इनका कुत्ता हूं क्या?? जिसे खाने के बाद रोटी का टुकड़ा डाल दिया जाता है? यही घर है, जहां 10 साल पहले कितना आदर सत्कार होता था। सभी आगे-पीछे गुलाम बने फिरते थे। तब मेरे पास पैसे थे, जायदाद थी, पर आज मैं गरीब हूं। सास राह तकती थी, पत्नी पूजा करती थी।
उसकी सारी धन माया का इन्ही लोगो ने कूड़ा कर दिया था। अब रोटियों के भी लाले पड़े है। उसके देह में ऐसी आग लगी थी कि अंदर जाकर सबको भिगो-भिगो के लगाए, पर चुप रह गया। उसने लेटे-लेटे ही कहा, “आज मैं नहीं खाऊंगा, मुझे भूख नहीं है।”
गुमानी बोली, “न खाओ मेरी बला से, हां नही तो! खाओगे तो तुम्हारे ही पेट में जाएगा, कुछ मेरे पेट में थोड़ी जायेगा।
हरिधन का गुस्सा, आंसू बन बहने लगा, यह मेरी पत्नी है, जिसके लिए मैने अपना सर्वस्व मिट्टी में मिला दिया! अब मुझे ये उल्लू बनाकर, यहां से निकालना चाहते है। थोड़ी देर में उसकी सास आकर कहने लगी, “ मुंह क्यों फुलाए बैठे हो? चलकर खाना क्यों नहीं खा लेते? यहां कोई तुम्हारे नखरे नहीं उठाने वाला! को देते हो, उसे मत देना, और क्या करोगे।
हरिधन ने टूटे हुए दिल से कहा, “कि हां अम्मा मेरे पास अब है क्या? जो तुम मेरी जिन्दगी का ठेका लोगी??
बूढ़ी सास भी मुंह फुलाकर भीतर चली गई। हरिधन अकेला बैठा अपने जीवन के फैसलों पर पछता रहा था।
तीसरा चरण
हरिधन उधर भूखा-प्यासा, चिंता की आग में जल रहा था। इधर घर में सास, दोनों सालों और गुमानी के बीच गंभीर बातचीत चल रही थी, जिसमें गुमानी भी हां-में-हां मिला रही थी।
बड़े साले ने ताना कसते हुए कहा, “हमारी बराबरी करते हैं, ये नहीं समझते कि किसी ने उसकी पूरी जिंदगी का ठेका थोड़े ही लिया है! दस साल हो गए, क्या इतने दिनों में दो-तीन हजार रुपये न डकार लिए होंगे?” छोटे साले ने तीखी आवाज में कहा, “मजदूर हो तो आदमी डांट-फटकार भी लेता, पर इनसे कोई क्या कहे! न जाने इनसे कब छुटकारा मिलेगा? शायद दिल में समझते होंगे, मैंने दो हजार रुपये नहीं दिए! यह नहीं जानते कि उनके दो हजार कब के उड़ चुके हैं।
सास ने गंभीर स्वर में कहा, “बहुत भारी खुराक है!”
गुमानी, जो सास के सिर से जूं निकाल रही थी, अब तक चुप थी, पर अंदर ही अंदर उसके दिल में आग धधक रही थी। उसने तंज कसते हुए कहा, “निकम्मे आदमी को खाने के अलावा और कोई काम होता है क्या!”
बड़े साले ने तिरस्कार भरे स्वर में कहा, “खाने में कोई हर्ज नहीं, जिसे जितनी भूख हो खाए, लेकिन कुछ कमाना भी चाहिए। यह नहीं समझते कि कोई पहुनाई में जिंदगी नहीं काट सकता!”
छोटे साले ने बात को और आगे बढ़ाया, “मैं तो एक दिन साफ कह दूंगा—अब आप अपना रास्ता देखिए, हमने आपका कर्ज नहीं खाया है!”
गुमानी, अपने घरवालों की ऐसी बातें सुन-सुनकर अपने पति हरिधन से नफरत करने लगी थी। वह सोचने लगी, “अगर वह बाहर से कुछ पैसे लाता, तो इस घर में उसका कितना मान-सम्मान होता! और वह, भी रानी बनकर रहती। लेकिन न जाने क्यों, उसे बाहर जाकर कमाने में इतनी तकलीफ होती है, जैसे उसकी नानी मर जाती हो।
गुमानी में अभी बालपन था, उसकी सोच सीमित थी। उसका खुद का कोई घर नहीं था, यही घर उसका सब कुछ था। उसकी भी सोच अब वही हो गई थी जो उसके घरवालों की थी। सच कहें, तो दो हज़ार रुपये में कोई किसी को खरीद थोड़े ही लेगा! दस साल में दो हज़ार रुपये कोई बड़ी रकम है? साल भर में दो आदमी तो इतने पैसे आराम से खा जाएंगे! फिर कपड़े, लत्ते, दूध-घी, सब कुछ चाहिए। दस साल बीत गए, एक पीतल का छल्ला तक नहीं बना।
हर बार घर से बाहर निकलने पर हरिधन ऐसे डरता है, जैसे उसके प्राण निकल जाएंगे। उसे लगता है अभी वही पूजा, मान-सम्मान जीवन भर मिलता रहेगा। यह नहीं सोचते कि पहले और अब में बड़ा फर्क है। बहू भी जब ससुराल जाती है, तो उसका कितना मान-सम्मान होता है। डोली से उतरते ही बाजे बजते हैं, गांव की औरतें उसका मुंह देखने आती हैं, और उसे रुपये देती हैं। महीनों तक उसे घर में सबसे अच्छा खाना-पहनना मिलता है, कोई काम नहीं लेता। लेकिन छह महीने बाद कोई उसकी बात तक नहीं सुनता, वह घर की नौकरानी बन जाती है।
चौथा चरण
हरिधन भी बाहर पड़ा अन्दर-ही-अन्दर सुलग रहा था। दोनों साले बाहर आए और बड़े साहब बोले, “भैया, उठो, तीसरा पहर ढल गया, कब तक सोते रहोगे? खेत में सारा काम ऐसे ही पड़ा है।”
हरिधन चट से उठ बैठा और तीखे स्वर में बोला, “क्या तुम लोगों ने मुझे पागल समझ लिया है?”
दोनों साले हक्का-बक्का रह गए, जिस आदमी ने कभी पलट के जवाब नही दिया, हमेशा ग़ुलामों की तरह हाथ बांधे हाजिर रहा, वह आज इतने स्वाभिमानी स्वर में बोल रहा है। यह उनको चौका देने के लिए काफ़ी था।
हरिधन ने देखा, इन दोनों के कदम उखड़ गए हैं, तो उसने एक और धक्का देने की हिम्मत की, खुद को रोक न सका। उसी ढंग से बोला-मेरी भी आंखें हैं, अंधा नहीं हूं, न बहरा ही हूं! छाती फाड़कर काम करूं और उस पर भी कुत्ता समझा जाऊं, ऐसे गधे कहीं और होंगे भला!?
अब बड़े साले को गुस्सा आया और बोला, “तुम्हें किसी ने यहां बांध तो नहीं रखा है! अगर तुम यह सोच रहे हो कि जन्म-भर पाहुने बने रहो और तुम्हारा वैसा ही आदर-सत्कार होता रहेगा, तो हमारे बस की बात नहीं है! हरिधन ने आंखें निकाल कर कहा क्या मैं तुम लोगों से कम काम करता हूं?
बड़े साले ने कहा, यह कौन कहता है? हरिधन-तो तुम्हारे घर की यही नीति है, कि जो सबसे ज्यादा काम करे, वही भूखा मारा जाए? बड़े-तुम खुद खाने नहीं गए, क्या कोई तुम्हारे मुंह में कौर डाल देता? हरिधन नें दात भींचते हुए कहा-मैं खुद खाने नहीं गया! कहते तुम्हें शर्म नहीं आती? बड़े साले ने फिर कहा,” क्या गुमानी नहीं आयी थी, तुम्हें बुलाने?’ हरिधन की आंखों में खून उतर गया, दांत पीसकर रह गया। छोटे साले ने कहा-अम्मा भी आयी थी, तुमने कह दिया, मुझे भूख नहीं हैं, तो क्या करती? सास भीतर से बड़ बड़ करती आई और बोली, “कहकर हार गयी, कोई उठे न तो मैं क्या करूं!”
हरिधन ने विष, खून और आग से भरे हुए स्वर में कहा-मैं तुम्हारे लड़कों का जूठा खाने के लिए हूं! मै कुत्ता हूं कि तुम लोग खाकर मेरे सामने रुखी रोटी का टुकड़ा फेंक दो? सास ने ऐंठकर कहा-तो क्या तुम लड़कों की बराबरी करोगे? हरिधन ये सुनकर हार गया। उसकी तनी हुई भवें ढीली पड़ गयी, आंखों की आग बुझ गयी, फड़कते हुए नथुने शांत हो गए. किसी घायल मनुष्य की भांति वह जमीन पर गिर पड़ा. ‘क्या तुम मेरे लड़कों की बराबरी करोगे?’ यह वाक्य एक लम्बे भाले की तरह उसके हृदय में चुभता चला गया।
पांचवा चरण
सारे घर ने खाना खा लिया, पर हरिधन नहीं उठा। उसकी सास, सालियों और ससुर ने मनाया, दोनों साले मनाकर हार गए, लेकिन हरिधन टस से मस न हुआ। वहां दरवाजे पर एक टाट पड़ा था, उसे उठाया और कुएं की और चल दिया। टाट बिछाकर वहां पड़ा रहा। अंधेरी रात थी। अनन्त आकाश में तारे बालकों की भांति खेल रहे थे, कोई नाचता था, कोई उछलता था, कोई हंसता था, कोई आंखें मींचकर फिर खोल देता था। रह-रहकर कोई साहसी बालक सपाटा भरकर एक पल में उस विस्तृत क्षेत्र को पार कर लेता था और न जाने कहां छा जाता था। हरिधन को अपना बचपन याद आया। वह भी इसी तरह खेला करता था। उसकी बाल-स्मृतियां उन्हीं चमकीले तारों की भांति प्रज्वलित हो गयीं। वह अपना छोटा-सा घर, वह आम का बाग़, जहां वह केरियां चुना करता था; वह मैदान, जहां कबड्डी खेला करता था, उसे सब याद आने लगा।
फिर अपनी करुणामयी मां की छवि उसे नजर आईं, ऐसा लग रहा था, मानो माता की आंखों में आंसू भरे, उसे छाती से लगा लेने के लिए हाथ फैलाए उसकी ओर चली आ रही हैं। लगा मां ने उसे छाती से लगा लिया हैं, और उसके सिर पर हाथ फेर रही हैं। वह फूट-फूटकर रोने लगा। उसके मुंह से यह शब्द निकले, “अम्मा, तुमने मुझे इतना भुला दिया! देखो, तुम्हारे लाल की क्या दशा हो गई है! कि कोई उसे एक ग्लास पानी को नहीं पूछता। क्या जहां तुम हो, वहां मेरे लिए कोई जगह नहीं हैं!?
अचानक गुमानी वहां पहुंच गई सो गए क्या? भला ऐसी क्या राच्छसी नींद! चल कर खा क्यों नहीं लेते? कब तक कोई तुम्हारे लिए बैठा रहेगा। हरिधन इस कल्पना जगत से उठ बैठा और मानो तलवार म्यान से निकालकर बोला-भला, तुम्हें मेरी सुध तो आयी! मैंने कह तो दिया था, मुझे भूख नहीं है। गुमानी ने कहा-तो कितने दिन तक न खाओगे? हरिधन ने गुस्से भरे स्वर में कहा अब इस घर का पानी तक ना पीऊंगा। तुझे मेरे साथ चलना है या नहीं?’
हरिधन के दृढ़ संकल्प से भरे हुए शब्दों को सुनकर गुमानी सहम उठी। बोली-कहां जा रहे हो? हरिधन ने मानो नशे में कहा-तुझे इससे क्या मतलब? मेरे साथ चलेगी या नहीं? फिर न कहना, मुझसे कहा नहीं. सहमी हुई गुमानी बोली-तुम बताते क्यों नहीं, कहां जा रहे हो? ‘तू मेरे साथ चलेगी या नहीं? ‘जब तक बता न दोगे, मैं नहीं जाऊंगी.’
‘तो मालूम हो गया, तू नहीं जाना चाहती. मुझे इतना ही पूछना था, नहीं तो अब तक मैं आधी दूर निकल गया होता। यह कहकर वह उठा और अपने घर की ओर चल दिया। गुमानी पुकारती रही,‘सुन लो, सुन लो’ पर उसने फिर मुड़कर भी न देखा.
छठा चरण
हरिधन ने 30 मील की दूरी 5 घंटे में तय कर ली। जैसे ही वह अपने गांव की अमराइयों के पास पहुंचा, उसकी मातृ भावना जाग उठी। हर पेड़, हर पत्ता उसे, उसकी मां की याद दिला रहा था। मंदिर का सुनहरा कलश देखकर वह बच्चे की तरह दौड़ा, मानो एक छलांग में उसे छू लेगा। वह उस आम के बाग में जा पहुंचा, जहां कभी वह डालियों पर बैठकर हाथी की सवारी का मजा लेता था। वही बैठकर भूमि पर सिर झुका रोने लगा, जैसे अपनी मां को अपनी पीड़ा सुना रहा हो।
वहां की हवा मिट्टी, सब कुछ उसे उसकी मां की याद दिला रहे थे। अचानक उसकी उदासी खुशी में बदल गई। पेड़ पर चढ़कर, उसने आम तोड़-तोड़ कर खाने शुरू कर दिए। वह अपने ससुराल के सारे अपमान भूल गया। पैरों में दर्द था पर इस आनंद में सब भूल गया। रखवाले (मंगरू) ने जोर से बोला, “ कौन है?? जवाब दो, नही तो ऐसा पत्थर खींचकर मारूंगा! कि वही ठंडे हो जाओगे। उसने कई गलियां भी दी। हरिधन ठहाके लगा हंसने लगा। ऐसी उल्लास से भरी हंसी उसने कई सालो में हंसी थी, उसे अजीब सा सुख मिल रहा था। मंगरू ने और गलियां दी, तो हरिधन ने पेड़ से आम तोड़ कर गिरा दिया, जो मंगरू के सिर पर जा गिरा और हरिधन हंसने लगा। मंगरू को आवाज पहचानी सी लगी, हरिधन यहां?? वह तो ससुराल की रोटियां तोड़ रहा है, कैसा हसोड़ा था, कितना चुलबुला था, न जाने किस हाल में होगा?
मंगरू ने डांटते हुए कहा, “जो भी हो चुपचाप नीचे उतर आओ वरना सारी हंसी निकाल दूंगा। हरिधन छुप कर बैठ गया। मंगरू बंदरों की तरह चट-पट पेड़ पर चढ़ गया, देखा तो हरिधन बैठा मुस्कुरा रहा था। दोनों बचपन के दोस्त गले मिले अरे हरिधन तुम कब आए? और कब से पेड़ पर चढ़कर बैठे हो? चलो! घर चलो, भला कोई इस तरह अपने गांव को छोड़कर जाता है क्या? अब चलो चलकर अपनी गृहस्थी संभालो, तुम्हारे पापा के मरने के बाद सब चौपट हो गया।
हरिधन-अब उस घर से क्या वास्ता है भाई? मैं तो अपना ले-दे चुका। मजदूरी तो मिलेगी ना? तुम्हारी गैया ही चरा दिया करूंगा! मुझे खाने को दे देना।
ये सुनकर मंगरू ने कहा-अरे भैया, कैसी बातें करते हो, तुम्हारे लिए तो जान हाजिर है। क्या ससुराल में अब न रहोगे? पहले तो तुम्हारा घर ही है, उसे संभालो, छोटे-छोटे बच्चे हैं, उनको पालो, तुम नयी अम्मा से बेवजह डरते थे। बड़ी सीधी है बेचारी, उसे अपनी मां समझो, तुम्हें पाकर तो निहाल हो जायेगी। अच्छा, घरवाली को भी तो लाओगे?
हरिधन-उसका अब मुंह न देखूंगा! मर गई है वो मेरे लिए।
मंगरू-तो दूसरी सगाई हो जायेगी, अबकी बार ऐसी मेहरिया ला दूंगा कि उसके पैर धो-धोकर पियोगे, लेकिन कहीं पहली भी आ गई तो!
हरिधन- अब वह नहीं आएगी।
सातवां चरण
हरिधन जब अपने घर पहुंचा तो दोनों भाई,‘भैया आए! भैया आए!’ कहकर भीतर दौड़े, और मां को खबर दी। उस घर में कदम रखते ही हरिधन को ऐसी शांत महिमा का अनुभव हुआ मानो वह अपनी मां की गोद में बैठा हुआ हैं. इतनी ठोकरें खाने के बाद उसका हृदय नरम पड़ गया था। जहां पहले अभिमान,आग्रह और हेकड़ी थी, वहां अब निराशा और हार थी। घर आकर हरिधन को मानो दुनिया की सारी खुशी मिल गई हो!
शाम को मां ने कहा-बेटा, तुम घर आ गए, हम तो धन्य हो गए। अब इन बच्चों को पालो, मां का नाता न सही, बाप का नाता तो है ही। मुझे एक रोटी दे देना, खाकर एक कोने में पड़ी रहूंगी. तुम्हारी अम्मा से मेरी बहन का नाता है, उस नाते तुम मेरे भी बेटे हो।
हरिधन ने अपनी सौतेली मां के स्नेह को देखकर अपनी मां के दर्शन किये। घर के एक-एक कोने से मातृ-स्मृतियों की छटा चांदनी की भांति बिखरी हुई थी। दूसरे दिन हरिधन फिर कंधे पर हल रखकर खेत को चला। उसके चेहरे पर उल्लास था और आंखों में गर्व। वह अब किसी पर आश्रित नहीं आश्रयदाता था। मांगने वाला भिक्षुक नहीं, घर का रक्षक था।
एक दिन उसने सुना, गुमानी ने दूसरी शादी कर के अपना घर बसा लिया है। मां से बोला-तुमने सुना काकी! गुमानी ने शादी कर ली?
काकी ने कहा- कोई बात नही अदालत तो है?
हरिधन ने कहा, “नहीं काकी बहुत अच्छा हुआ बला टली, ला, महावीर जी को लड्डू चढ़ा आऊं। मैं तो डर रहा था! कहीं मेरे पल्ले ना आकार पड़ जाए। भगवान ने मेरी सुन ली, मैं वहां से यही ठानकर चला था, अब उसका मुंह जिंदगी में कभी नहीं देखूंगा।